दूरी

एक दिन समन्दर ने लहरों से पूछा:-

तू मुझमे हो के भी
इतनी बेचैन क्यूँ हो जाती हैं
इतने पास आ के भी
इतनी दूर क्यूँ हो जाती हैं

लहरों ने समन्दर से कहा:-

मेरे जीवन का
मकसद भी तू हैं
मेरी बेचैनी का
कारण भी तू हैं

कितनी ही मुश्किलों से
मैंने तुझको पाया हैं
थमना मेरी फितरत नहीं
थाम मुझको तू पाया हैं

बिन तेरे कैसे
रह सकती हूँ मैं
सिमटकर तुझमें
कैसे बिखर सकती हूँ मैं

होती रहें दूरी जितनी भी
मुझे तुझसे मिल जाना हैं
हर बार इस दूरी से
वो क्षण बार-बार आना हैं

एक डोर

एक डोर और एक चुम्बक
और वों उसका मालिक
कुछ कचरा और कुछ कबाड़
और वों उसका साहिल

वों गलियाँ और वों रास्तें
और वों नन्हें कदम
वों धूल और वों मिट्टी
और वों खिलता कमल

कुछ फूल और कुछ मालायें
और वों टूटती फुलवारी
कुछ पतझड़ और कुछ बारिश
और वों सूखी डाली

न गिला और न शिकवा
और वों न करता किसी रोज
न उम्मीद और न फरियाद
और वों रहता बेखौफ

एक चाँद और एक सूरज
और उस पर वों कहर
न बचपन और न जिन्दगानी
और उस पर वों ग्रहण

कहीं पत्थर और कहीं भगवान
और वों एक बेजुबान
कहीं रंगमहल और कहीं शीशमहल
और वों सबसे अन्जान

ये दुनिया और ये ज़िन्दगी
और वों एक बेढंग
कहीं लोभ और कहीं भ्रष्टता
और वों एक व्यंग्य

एक इंसानियत और एक मजबूरी
और वों एक हकीक़त
एक सभ्यता और एक दायित्व
और वों एक दुखती रँग